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कविता

चोर

नेहा नरूका


उसे लगता है
वह एक चोर है
जो रहती है हरदम
एक एक नई चोरी की फिराक में
जब भी वह अपने शरीर को गहने
फैशन-एसेसरीज से सजाती है
मेकअप में लिपे-पुते होंठ
आँख, गाल, माथा और नाखून
उसे बेमतलब ही
चोर नजर आते हैं

उसे लगता है
वह छिपाए फिरती है
इन सब में
'कुछ'
उसे लगता है
घर में
कालोनी में
शहर में हर कहीं
सभी उसके पीछे पड़े हैं
क्या वाकई वह कोई चोरी कर रही है
उसे तो अमूमन यही लगता है
कि उसका भाई जो उसे टोकता है
पड़ोसी जो उसे देखता है
माँ जो उसे डाँटती है
बहन जो उसे घूरती है
ये सब उसे चोर समझते हैं

उसके पर्स में
किताब में...
जो रखा है
उसकी डायरी में जो लिखा है
उसमें मन में जो घूमता है
यह सब चोरी का सामान
कहीं कोई देख न ले
पढ़ और समझ न ले

उसे लगता है
समाज की मान्यताओं को नकार कर
लगातार चोरी कर रही है
और...
सजा से बचने के लिए
कभी-कभी वफादारी का दिखावा कर लेती है
फिर भी उसे महसूस होता है
आज नहीं कल ये सब लोग
कोई न कोई सजा तय करेंगे उसके लिए

नहीं वह नहीं जिएगी
तयशुदा घेरे में बँधकर
चोर की अपनी सीमा होती है
वह सोचती है
उसे तो 'बागी' होना पड़ेगा

 


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